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(बॉलीवुड के अनकहे किस्से) अच्छी कहानी के लिए जब निर्माता हिमांशु राय और लेखक में हुई हाथापाई

यह बंबई (अब मुंबई) में 1937 का दौर था। तब बॉम्बे टॉकीज, न्यू थियेटर्स और प्रभात फिल्म कंपनी ही देश की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कंपनियां समझी जाती थीं । पूरा देश इनकी बनाई फिल्में देखने को लालायित रहता था। प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता किशोर साहू अपने आरंभिक दिनों में बहुत परेशान हुए थे। तमाम स्टूडियो के चक्कर लगाने के बाद वह निराश होकर बॉम्बे टॉकीज पहुंचे तो उसका स्तर देखकर चकरा गए। मलाड के पास स्थित बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो का पूरा परिसर ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था । सात एकड़ जमीन में बने इस स्टूडियो में जगह-जगह फूलों की क्यारी थीं। उनमें गुलाब सहित कई मौसमी फूल उगे हुए थे। यह जमीन बंबई के नामी सेठ सर फिरोज सेठना से लंबी अवधि के लिए लीज पर ली गई थी।

इस भू-भाग के दक्षिण में स्टूडियो था और पूर्व की तरफ एक दोमंजिला आलीशान बंगला। इस बंगले में इस कंपनी के मालिक हिमांशु राय रहते थे और वहीं उनका दफ्तर था। स्टूडियो का पूरा वातावरण बहुत सुहावना और शांत था। भारतीय ही नहीं तमाम यूरोपियन नागरिक भी वहां दिखाई दे जाते थे। दफ्तर आधुनिक और सुंदर था। बिजली के पंखों की आवाज के साथ टाइपराइटर्स की खटखट भी गूंजती रहती थी। फिल्म कंपनी में हिमांशु राय के अलावा उनकी पत्नी देविका रानी (नायिका), अशोक कुमार (नायक), सर रिचर्ड टेम्पल (कंपनी के डायरेक्टर सदस्य), फ्रेंज ऑस्टेन (निर्देशक), जोजेफ वीरशिंग (छायाकार), काउंट वॉन श्प्रेटी (तकनीशियन), जॉली (लेबोरेटरी विशेषज्ञ) आदि एक से एक प्रतिभाशाली लोग अच्छी फिल्म बनाने में संलग्न और व्यस्त थे। यह जगह किशोर साहू को भा गई।

किशोर साहू ने निश्चय किया कि वे बॉम्बे टॉकीज में ही काम हासिल करेंगे। किसी तरह उन्होंने हिमांशु राय से मुलाकात की, जिनकी उम्र उस समय लगभग 45 वर्ष थी। एक घंटे चली इस पहली मुलाकात में सामान्य बातचीत हुई और उन्होंने उन्हें 20 दिन बाद आकर मिलने को कहा। तब किशोर साहू ने निवेदन किया कि वह बंबई में अकेले हैं। उनके पास कुछ खास काम नहीं है। अगर वह उन्हें एक पास जारी करवा दें तो वह प्रतिदिन स्टूडियो घूम सकते हैं। इसे हिमांशु राय ने स्वीकार कर लिया।

लौटते समय अचानक उनकी मुलाकात अशोक कुमार से हो गई और मध्य प्रांत होने के कारण इस पहली मुलाकात में ही उनका अच्छा परिचय हो गया। आने वाले दिनों में यह मुलाकात और प्रगाढ़ हुई। दोपहर में वह उनके साथ कैंटीन चले जाते। वहां की कैंटीन भी बहुत सुंदर थीं। इस दौरान आते- जाते उनकी देविका रानी से भी कई मुलाकात हुईं। इस समय बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘नई कहानी’ रिलीज हुई थी। यह बहुत अच्छी नहीं चली थी। इस बीच कई हफ्ते गुजर गए पर हिमांशु राय ने उनसे जो बातचीत का वादा किया था उसके लिए नहीं बुलाया। इस दौरान वहां पौराणिक कथा ‘सावित्री’ पर फिल्म बनाने का निर्णय लिया गया। देविका रानी सावित्री और अशोक कुमार सत्यवान की भूमिका कर रहे थे।

इस फिल्म में किशोर साहू ने भी छोटा रोल किया। इस बीच खाली समय में वे कविताएं और कहानी लिखते रहे। फिल्म के लिए कहानी भी सोचते रहते और खाली समय में पटकथा भी लिखने लगे। लिखने का शौक उन्हें कॉलेज के समय से ही था। सावित्री फिल्म भी विफल रही। इस तरह ‘अछूत कन्या’ के बाद बॉम्बे टॉकीज की तीन-चार फिल्में लगातार फ्लॉप हो गईं। इससे हिमांशु राय और उसके मालिक राय बहादुर चुन्नीलाल चिंतित हो गए। फिर तय किया गया कि स्टूडियो से जुड़े कहानी के स्थायी लेखक निरंजन पॉल पर निर्भर न रहकर बाहर से कहानी ली जाएं। इसी दौरान हिमांशु राय ने किशोर से कहा कि देविका रानी बता रही थीं कि तुम्हारे पास कोई कहानी है। किशोर ने तुरंत ही उन्हें अपने पास तैयार रखी पटकथा पढ़ने को दे दी। एक हफ्ते बाद देविका रानी ने किशोर से हंसते हुए कहा कि गोल को तुम्हारी कहानी पसंद आ गई है। अगला चित्र शायद तुम्हारी कहानी पर ही बनेगा। देविका, हिमांशु कोविलायत के पुराने दिनों में पहले ‘गोलाब दा’, फिर ‘गोल दा’ और फिर ब्याह हो जाने पर ‘गोल’ कहा करती थीं।

इसके दो दिन बाद हिमांशु राय ने किशोर को अपने दफ्तर में बुलवा लिया।कहानी की कीमत के बदले किशोर ने कहा, कुछ नहीं सिर्फ आपका आशीर्वाद। मुस्कराते हुए राय ने उन्हें हिदायत दी कि अभी यह बात किसी को बताना नहीं वरना स्टूडियो में तहलका मच जाएगा। बाहर निकलने पर देविका रानी और अशोक कुमार ने उन्हें कहानीकार कहकर बधाई देते हुए मिठाई लेकर आने को कहा । तीसरे दिन दोपहर को जब किशोर साहू हिमांशु राय के दफ्तर में उनसे मिलने गए तो अचानक उनके कमरे से जोर-जोर से चिल्लाने-चीखने की आवाजें आने लगीं । गरम मिजाज हिमांशु राय महीने दो महीने में किसी न किसी पर इसी तरह बिगड़ते तो जोर-जोर से चिल्लाने और डांटने की आवाजें आती थीं। मगर आज दो व्यक्ति चिल्ला रहे थे। आधे घंटे के बाद कमरे से राय और निरंजन पाल बाहर निकले। दोनों गुस्से से लाल थे। दोनों के कपड़े जगह-जगह से फट रहे थे। दोनों तुरंत ही मोटर में बैठकर बाहर चले गए। बाद में राय के सेक्रेटरी परेरा और चपरासियों से उन्हें पता चला कि दोनों में हाथापाई भी हुई थी। झगड़े का कारण उनकी कहानी का चुना जाना था, जो निरंजन पाल को खटक गया था। निरंजन वहां के नियमित कहानी और संवाद लेखक थे ।

प्रतिष्ठित अनुभवी, सिद्ध कथाकार को नवागंतुक, नौसखिए कथाकार से मात खाना पसंद नहीं आया था। इस घटना के एक सप्ताह बाद हिमांशु राय ने किशोर साहू को फिर बुलाया। इस बार दफ्तर में नहीं अपने घर पर बुलाया रात के आठ बजे । उन्होंने उनसे सीधी बात कही कि निरंजन पाल से मेरी पुरानी दोस्ती है। हम लोग विलायत से एक दूसरे को जानते हैं। मेरे निर्मित कई चित्रों की कहानी उन्होंने लिखी है। उन्होंने मेरा उस वक्त साथ दिया जब मेरे पास पर्याप्त धन न था। किशोर साहू ने कहा कि इस बात का मतलब क्या है, तब उन्होंने कहा कि निरंजन पाल से उस दिन की काफी कहासुनी के बाद समझौता इस बात पर हुआ कि मैं उन्हें एक मौका और दूं।उन्होंने तीन दिन की मोहलत मांगी और कहा कि इन तीन दिनों के भीतर वह एक नई कहानी लिखकर देंगे। अगर वह मुझे पसंद नहीं आए तो मैं कोई भी और किसी की भी कहानी लेकर फिल्म बना सकता हूं। किशोर साहू ने धड़कते हुए दिल से पूछा , तो उन्होंने जो कहानी लिखकर दी क्या वह उन्हें पसंद आई? उधर से जवाब आया हां।

यह कहकर राय ने एक फाइल जिस पर ‘जीवन प्रभात’ लिखा हुआ था उन्हें पकड़ा दी और कहा तुम इसे घर ले जाओ। रात में पढ़ डालो और सुबह मुझे बताओ कि तुम्हें भी यह पसंद आई या नहीं, कहीं मैं तुम्हारे साथ कोई गुनाह तो नहीं कर रहा? किशोर साहू ने रात में ही उस पटकथा को पढ़ डाला। उन्हें पाल की कहानी अपनी कहानी से अच्छी लगी। उनके दिल को तसल्ली हुई। वे चैन की नींद सोए और अगले दिन जब स्क्रिप्ट लौटाने हिमांशु के सामने पहुंचे तो उनका पहला सवाल यही था कि तुम्हें कहानी पसंद आई। इसे पसंद करके मैंने तुम्हारे साथ तो कोई अन्याय नहीं किया ? जी नहीं। किशोर का यह जवाब सुन हिमांशु राय के चहरे पर सुकून का भाव आया।

चलते-चलते

किशोर साहू जब अपनी मायूसी दबाते हुए वहां से चलने लगे तो हिमांशु राय ने उनसे कहा, आपकी उम्र अभी कम है। इस बात को अपने दिल पर मत लेना। जिंदगी में ऐसे अनेक अवसर आएंगे। वैसे तुम्हें इसमें नंदलाल का चरित्र कैसा लगा? दरअसल ‘जीवन प्रभात’ नाम की इस कहानी का नायक नंदलाल ही था। साहू के अच्छा कहने पर अचानक हिमांशु राय बोले, क्या तुम यह रोल करोगे? किशोर साहू चौंक गए और बोले जी…। नंदलाल ने कहा-हां। इस तरह किशोर साहू एक कहानीकार बनते-बनते फिल्म के हीरो बन गए। वह भी देविका रानी के। साढ़े तीन महीने में ‘जीवन प्रभात’ बनकर तैयार हो गई। फिल्म का उद्घाटन बंबई की मिनर्वा थियेटर में धूमधाम से हुआ। फिल्म सफल रही और देश के कई शहरों में इसने जुबली मनाई।

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